रविवार, 26 सितंबर 2010

मौन निमंत्रण

मौन निमंत्रण से उस बदल के,
पहुच गयी मै निकट उसके,
बनाया था आकर्षक आसन उसने,
विराज गयी आसन में, मै उसके।

कुछ-
निराश और आशाएं लिए,
निर्बल और शक्ति लिए,
क्रोध और शांति लिए,
भय और अभय लिए।

मौन ही अकृत की बाहें अपनी उसने,
फेला कर आलिंगित किया, मुझे उसने,
अपने मधुर होंटों को बना उसने,
लिया मेरे माथे का चुम्बन उसने।

आलिंगित उसकी भुजाओं में मौन मै,
उसके निर्मल जल के साथ मेरे,
चक्शु जल भी बह गए मेरे,
मौन हे पुनः पुनः आने का संकेत देकर,
कोमलता से बाहें खोल अपनी उसने,
धरा पे वापिस उतार दिया मुझे।

मै हूँ अब-
आशापूर्ण, शक्तिपूर्ण, शांतिपूर्ण और अभयपूर्ण.......

4 टिप्‍पणियां:

  1. HI asha j its very sweet nad nice poem ,i want to request you please post your Poems and Shayari at my site http://www.indiapoems.com ! aur mere site ka shubha badhaye

    Thanks
    Dev sinha

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  2. "में" और "बादल" दोनों के एक दुसरे के लिए समर्पण को बहुत कोमल भावों से और सटीकता से आपने चित्रित किया है आशा जी

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